घरौंदा
घरौंदा
गाँव का अपने बसाने
लौट आया हूँ ं
खुशी
बसती जहाँ मै उस
ठिकाने लौट आया हूँ.
ये नगर जो
ईंट पत्थर के घने कानन
हुये हैं
हीन स्मिति से
सभी के अनमने आनन
हुये हैं
मिट न पाती
है कभी उनसे अभावों
की वो छाया
जो सरल जीवन
को करने के बने
साधन हुये हैं.
न आती नींद रातों
को न दिन दे
चैन पाते हैं
यहाँ
पर शान्ति के कुछ पल
बिताने लौट आया हूँ.
घरौंदा गाँव का......
जहाँ प्रासाद उन्नत
श्रेणियाँ अठखेलियाँ करतीं
मगर वे भाव
घर का दे न
अपने पन से हृद
भरतीं
हृदय संवेदना से
हीन खाली सिन्धु से
लगते
निभें रिश्ते ज्यों रेगिस्तान में नावें दिखें
तिरती.
सुखद
यह नीम की छाया
लगे माँ की ही
ममता सी
लिये
मन लालसा वह प्यार पाने
लौट आया हूँ.
घरौंदा
गाँव का.......
कभी भूला नहीं
देता रहा जो छांव
वह पीपल
दुपहरी जेठ की तपती
में नीचे वायु जो
शीतल
मेरी माँ ने
जहाँ गाड़ा था मेरे जन्म
का नाड़ा
हो गया हर
तीर्थ से ऊंचा मेरा
ये जन्म स्थल.
पुरातन
पेंड़ बागों के दिखें सब
अस्थि पंजर से
निशानी
पूर्वजों की वो बचाने
लौट आया हूँ.
घरौंदा
गाँव का.....
नहीं अब गाँव
के भी दृश्य वैसे
रह गये साथी
सरोवर कूप प्यासे चीख
पीड़ा कह गये साथी
बंधे हैं प्रेम
सरि पर बांध चेहरे
रेत के टीले
कहानी कह रहे अपनी
व्यथा चुप सह गये
साथी
भगीरथ
हो नहीं सकता तो
'मांझी हूँ वही दशरथ'
सरित
मरुथल में फिर संभव
बनाने लौट आया हूँ.
घरौंदा
गाँव का अपने...... ्
त्रिभुवन शंकर मिश्र "चातक "
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